कुछ सोच जो मन विचलित हो उठा
स्मृतयो की झाँकी सी थी
अधरों पर विचित्र मुस्कान सी थी
नयनों का जी भी भर आया
एक बदरी काली यादों की
क्रंदन करती कोपित काया
पर आँसू एक सहमा सा था
आँखों की कोर में छिपा हुआ
डरता था युहीं बह जाने
पोषित अस्तित्व मिट जाने से
कुछ सोच तभी मन विचलित सा हुआ
कण कण मेरा तब द्रवित सा हुआ
और अब वो भी आँसू बह चला है
अपना अस्तिव मिटने को
लघु जीवन सार्थक कर जाने को
अब वह भी बह चला है
आँसू ही था या सपना कोई जो टूट गया
आँसू ही था या अपना कोई जो छूट गया
आँसू ही था या तुम थी
शिवा हर्षवर्धन चतुर्वेदी